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क्या विज्ञान इन लाशों को ज़िंदा कर सकेगा?

क्या विज्ञान इन लाशों को ज़िंदा कर सकेगा?

अमरीका में कैंसर की मरीज़ 14 साल की एक लड़की को इसकी इजाज़त मिली थी कि मौत के बाद उसके शरीर को संभाल कर रखा जाए. उस किशोरी की मौत अक्टूबर में हो गई.

शरीर को संभालकर रखने की इस विधि को ‘क्रायोजेनिक्स’ कहा जाता है. क्रायोजेनिक्स यह उम्मीद दिलाता है कि मरा हुआ इंसान सालों बाद जी उठेगा. हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं कि ऐसा होगा.

आख़िर यह कैसे होता है?

मौत के बाद जितनी जल्दी हो सके, लाश को ठंडा कर जमा दिया जाए ताकि उसकी कोशिकाएं, ख़ास कर मस्तिष्क की कोशिकाएं, ऑक्सीजन की कमी से टूट कर नष्ट न हो जाएं.

इसके लिए पहले शरीर को बर्फ़ से ठंडा कर दिया जाता है.

इसके बाद ज़्यादा महत्वपूर्ण काम शुरू होता है. शरीर से ख़ून निकाल कर उसकी जगह रसायन डाला जाता है, जिन्हें ‘क्रायो-प्रोटेक्टेंट’ तरल कहते हैं.

ऐसा करने से अंगों में बर्फ नही बनते. यह ज़रूरी इसलिए है कि यदि बर्फ़ जम गया तो वह अधिक जगह लेगा और कोशिका की दीवार टूट जाएगी.

इसके बाद शरीर को तरल नाइट्रोजन की मदद से -196 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा किया जाता है और उसे आर्कटिक क्षेत्र में इस्तेमाल किए जाने वाले स्लीपिंग बैग में डाल दिया जाता है.

लेकिन इस तरह शरीर को ठंडा रखने की तकनीक सिर्फ़ अमरीका और कनाडा के पास ही है.

अमरीका में 150 से अधिक लोगों ने अपने शरीर तरल नाइट्रोजन से ठंडा कर रखवाए हैं. इसके अलावा 80 लोगों ने सिर्फ़ अपना मस्तिष्क सुरक्षित रखवाया है.

पूरे शरीर को जमा कर सुरक्षित रखने में 1,60,000 डॉलर ख़र्च हो सकता है. मस्तिष्क को सुरक्षित रखने में 64,000 डॉलर का ख़र्च आता है.

क्रायोजेनिक तकनीक से शरीर सुरक्षित रखने के हिमायती तीन बातों पर ज़ोर देते हैं.

किसी को क़ानूनी तौर पर मृत घोषित करने में समय लगता है, लेकिन मरने के तुरंत बाद यह ध्यान रखा जा सकता है कि मस्तिष्क के ऑक्सीजन स्तर को बरक़रार रख उसे होने वाला नुक़सान कम किया जाए.

इस मामले में 2015 में एक बड़ी कामयाबी मिली, जब एक ख़रगोश के मस्तिष्क में क्रायो-प्रोटेक्टेंट तरल डालकर कोशिकाओं को नष्ट होने से बचा लिया गया.

दूसरी बात यह है कि शरीर को ठंडा रखने से कोशिकाओं की रासायनिक प्रक्रियाओं की रफ़्तार धीमी हो जाती है. इससे शरीर के अंग ख़राब नहीं होते.

अंतिम बात यह है कि इस तरह ठंडा रखने से शरीर को जो नुक़सान होता है, भविष्य में नैनोटेक्नोलॉजी की मदद से उसे ठीक किया जा सकता है.

असली दिक्क़त कोशिका के स्तर पर ही होती है. साधारण शब्दों में कहा जाए तो क्रायोजेनिक प्रक्रिया कोशिकाओं के लिए निहायत ही नुक़सानदेह है.

कनाडा के कार्लटन विश्वविद्यालय के बायोकेमिस्ट प्रोफ़ेसर केन स्टोरी कहते हैं, “मानव कोशिका में लगभग 50,000 प्रोटीन मॉलीक्यूल और उसकी झिल्ली में करोड़ों वसा मॉलीक्यूल होते हैं. क्रायोजेनिक तरीक़े के इस्तेमाल से वे नष्ट हो जाते हैं.”

मस्तिष्क कैसे काम करता है, यह समझने से यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि इसकी मरम्मत कैसे की जा सकती है.

स्टॉकहोम के कैरोलिंस्का इंस्टीच्यूट के न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर मार्टिन इंगवर ने कहा, “मस्तिष्क के नेटवर्क निहायत ही असमान होते हैं. इनमें से कुछ बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन कुछ दूसरे नष्ट हो सकते हैं. अब हमे यह नहीं मालूम कि इनमें कौन बचेंगे और कौन नष्ट हो जाएंगे.”

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