अपने स्तन काटकर स्तन ढ़कने के अपने अधिकार की लड़ाई और स्तन टैक्स के खिलाफ लड़ाई की मशाल (19 वी सदी में) जगाने वाली स्त्री नांगेली की कहानी जो केरल के त्रावणकोर राज्य में गैर-ब्राह्मण महिलाओं को अपने सम्मान की लडाई लम्बे समय तक लड़ना पडा. यहाँ न सिर्फ महिलाओं को अपने स्तन ढकने से मनाही थी, बल्कि महिलाओं पर स्तन टैक्स लगाया जाता था. जिसका जितना बड़ा स्तन, उससे उतना ज्यादा टैक्स देना पड़ता था.
केरल के चेर्थाला की एझवा जाति (दलित जाति) की महिला नांगेली से 1803 में जब त्रावणकोर के टैक्स अधिकारी उसके घर टैक्स लेने आये तो विरोध स्वरुप उसने अपने स्तन काटकर दे दिये. इसके बाद उसकी मौत हो गई. घटना के बाद उसका पति चिरुकंडन जब घर लौटकर आया तो उसने उसकी चिता में कूदकर आत्महत्या कर ली. इसके आलावा लोक कथाओं के मुताबिक नांगेली के स्तन टैक्स देने से मना करने पर राजा के टैक्स अधिकारियों ने उसका स्तन कटवा दिये थे, जिसके बाद उसकी मौत हो गई.
इसके बाद इस कुप्रथा के खिलाफ तीव्र आंदोलन हुआ. सन 1812 में राजा को टैक्स की यह कुप्रथा बंद करने के लिए बाध्य होना पड़ा. हालांकि इसके बाद भी गैर-ब्राहमण महिलाओं को स्तन ढंकने के अधिकार से वंचित रखा गया. इसके लिए लड़ाई और लम्बी चली, अगले चार दशकों तक यह लड़ाई चली.
राजा ने दिया स्तन काटने का आदेश !
नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना स्तन खुला रखना होता था. सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. यदि कोई पहनता तो उन्हें सजा भी हो जाती थी. एक घटना बताई जाती है जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला.
कू-प्रथा से बचने के महिलाओं ने बदले अपने धर्म
इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं. 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए. बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं. धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया. इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कोशिश करती रहीं.
ब्राम्हण मर्दों की बर्बरता
यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ. ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे. जो भी इस नियम की अवहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता. अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते. यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें.
अंग्रेजों के शासन में मिली राहत
अंग्रेजों का राजकाज में भी असर बढ़ रहा था. सन 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं. लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ. उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे. आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया. एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए. इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया.
अदालत में महिलाओं ने कपडे उतारकर जताया विरोध
एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा. उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े. तभी वे भीतर जा पाईं. संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी.
राजा और मर्दों अर्ध नंगी औरते देखने में आता था मजा
सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था. क्यों न होता आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें. उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था. राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे. आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती. अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया. अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई. सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं.
इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है. विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों और उनके दुकानों के सामान को लूटना शुरू कर दिया. राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई. दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया.
जब मद्रास के कमिश्नर ने लगाई फटकार
मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है. अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं. 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया. कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक भी छीन कर लिया.
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