Ajab Gajab
बनारस के बंदरों ने विवेकानंद को आखिर क्यों दौड़ाया था ?
स्वामी जी अपने रिलीजियस रॉकस्टार. बोलें तो पब्लिक का माथा खुल जाए. और फैन तो सब उनके इत्ते कि कुछ पूछो मत. और फैन हैं तो लॉजिक कभी कभी लड़खड़ा भी सकता है. तभी की ये बात है.
एक भाई साब आए. बोले बाकी सब वेदांत वगैरह तो ठीक है. पर एक बात समझ न आई. स्वामी ने कहा. पूछा जाए. साब बोले. ये मां को संसार में बार बार महापूज्य क्यों बताया जाता है. स्वामी बोले. जवाब मिलेगा. बराबर मिलेगा. बस एक काम कर दो.पूछा गया क्या. स्वामी ने कहा. एक सेर भर का पत्थर ले आओ. आया पत्थर. बोले, इसे कपड़े में लपेट दो. और फिर पेट से बांध लो. उतारना मत. और कल आना.
स्वामी गए बनारस. देवी दर्शन किए एक मंदिर में. लौटे तो परसाद. पर उसे खाना चाहते थे बंदर.
विवेकानंद तो बाद में बने. पहले थे नरेंद्र. बाल नरेंद्र. किस्सा बांधने में छांकड़. सुनने वाला सुधबुध भूल जाए. तो एक दिन क्लास में हुआ कुछ ऐसा. कि एक मास्टर गया. घंटी बजी. दूसरे के आने में था टाइम. इत्ती देर में नरेंद्र ने बातों की पुटरिया खोल दी. आसपास के सब हिलग गए. मास्टर आया. पढ़ाना चालू किया. मगर देखे कि कोई देख ही नहीं रहा. खरखराए तो बालक पलटे. अब सबकी पिट्टी सिट्टी वेन्ट ऑन वॉकिंग. और ऐसे टाइम सदियों से गुरु जी लोगों का एक ही औजार रहा है पेलने को. सुनाओ 13 का पहाड़ा टाइप कोई सवाल पूछ दो. मास्टर ने पूछा. कोई जवाब न दे पाए. आखिर में बारी आई अपने नरेंद्र की. और इन्होंने सटासट सब बता दिया. गुरुजी बोले. इसको छोड़कर बाकी सब डेस्क पर ठाणे हो जाओ. हो गए. पर ये क्या. नरेंद्र भी हो गए. टीचर जी पूछे. अरे बेटा नरेंद्र तुम क्यों खडे़ हो गए. तो अपने वीर बालक बोले. गलती इनकी नहीं हमारी है. हम ही इन्हें कुछ बता रहे थे. तो ध्यान बंधा था.
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