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चंद्र शेखर आज़ाद और झाँसी की गुप्त गुफा

चंद्र शेखर आज़ाद और झाँसी की गुप्त गुफा

निकले हैं वीर जिगर लेकर यूं अपना सीना ताने, हंस-हंस के जान लुटाने ‘आजाद’ सवेरा लाने। आजादी की ऐसी ही धुन पर चंद्रशेखर आजाद सवार थे। उन्होंने अपनी जिंदगी के 10 साल फरार रहते हुए बिताए। अंग्रेजों से छिपने के लिए उन्होंने झांसी में एक छोटी सी गुफा बनाई थी। 4 फीट चौड़ी और 8 फीट गहरी इस गुफा में आजाद कई-कई दिन तक छिपे रहते थे।

झांसी में थे उनके भाई जैसे दोस्त…

– बीकेडी डिग्री कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. बाबूलाल तिवारी ने कहा, ”चंद्रशेखर आजाद ने 4 साल झांसी में गुजारे थे। यहां वह क्रांतिकारी रुद्रनारायण सक्‍सेना के घर में रहे। साल1925 में झांसी में पार्टी का गठन किए जाने के दौरान चंद्रशेखर और रुद्रनारायण की मुलाकात हुई थी।”

– ”धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती इतनी गहरी हो गई। चंद्रशेखर उन्‍हें अपना भाई मानने लगे। यहां रहते हुए कुछ ही समय में चंद्रशेखर घर के सभी सदस्‍यों से पूरी तरह घुल-मिल गए।”

– ”अंग्रेजों की छापेमारी से बचने के लिए चंद्रशेखर एक कमरे के नीचे बने तलघर में रहते थे। यहां वह रुद्रनारायण, सचिंद्रनाथ बख्शी, खनियाधाना के महाराज कहलक सिंह जूदेव, महाराजा बदरीबजरंग बहादुर सिंह, विश्वनाथ, भगवान दास माहौर और सदाशिव राव के साथ आजादी की योजना बनाते थे। अब इस घर को बंद कर दिया गया है।”

अपने हाथ से खोदी गुफा-कुंआ

– ”1924 में झांसी जि‍ले के मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर दूर सातार नदी के किनारे जंगल में आजाद ने अपने अज्ञातवास के डेढ़ साल बिताए। इस दौरान उन्होंने यहां एक हनुमान मंदिर की स्थापना भी की थी।”

– इस मंदिर में मौजूदा पुजारी प्रभुदयाल ने कहा, ”यहां आने के बाद आजाद ने उस अंग्रेज अफसर के यहां ड्राइविंग की, जिसको उन्हीं तलाशी के लिए लगाया गया था। वो 8 महीने तक उसके यहां गाड़ी चलाते रहे और खुद की तलाश करवाते रहे।”

– ”यहां उन्होंने अपना नाम हरिशंकर रख लिया था। जिससे उनकी पहचान न हो सके। जब उस अफसर को उन पर कुछ शक हुआ, तब तक आजाद वहां से भाग निकले और पुजारी का वेश धारण कर लिया।”

– ”उसके बाद उन्होंने मंदिर में एक कुआं खोदा, जो आज भी मौजूद है और जंगल से जाने के लिए हनुमान मंदिर से सिद्धबाबा मंदिर तक एक गुफा का निर्माण किया।”

– ”उन्होंने अंग्रेजों से बचने के लिए अपने हाथ से एक गुफा खोदी, जिसका वो जंगल में भागने के लिए इस्तेमाल करते थे और एक कुंआ खोदा जिसका वह पानी पीते थे। ये दोनों ही आज भी मौजूद हैं।”

– ”अंग्रेज मंदिर के आसपास आते थे, तो वो इसी गुफा से होकर निकल जाते थे। फिलहाल इसमें दरारें पड़ चुकी है।”

जंगल में करते थे शूटिंग प्रैक्टिस

– ”सातार के पास ढिमरपुरा गांव के रहने वाले मलखान सिंह से उनकी अच्छी दोस्ती थी। उन्हीं के साथ वो जंगल में शिकार करने जाते थे। जहां राइफल से जमकर निशानेबाजी की प्रैक्टिस करते थे।”

– ”यहां मौजूद कुटिया में जमीन पर सोकर उन्होंने आजादी के लिए डेढ़ साल तक तपस्या की थी। मिट्टी का चबूतरा ही उनकी चारपाई थी जो आज भी उनकी निशानी बना हुआ है।”

– ”वेश-भूषा बदलकर अंग्रेजों के सामने से निकल जाना चंद्रशेखर के बाएं हाथ का खेल था। ये सच है कि अंग्रेज कभी चंद्रशेखर आजाद को देख नहीं पाए थे। इसलिए आजाद की तस्वीर के लिए अंग्रेज कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे।”

– ”उन्होंने झांसी और इसके आसपास करीब 5 साल से ज्यादा का समय बिताया है। सातार के पास बनी उनकी कुटिया में उनके सहयोगी क्रांतिकारी उनके साथ बैठक करने आते थे। यहीं से अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की रणनीति तैयार की जाती थी। आज भी इस जगह दो चबूतरे बने हैं, जहां आजाद और उनके साथी बैठा करते थे।”

चंद्रशेखर आजाद की मां को लोग बुलाते थे डकैत की मां

– लेखक/इतिहास के जानकार जानकी शरण वर्मा ने कहा, ”फरारी के समय सदाशिव उन विश्वसनीय लोगों में से थे। आजाद इन्हें अपने साथ मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा गांव ले गए थे और अपने पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी से मुलाकात करवाई थी।”

– ”सदाशिव आजाद के शहीद होने के बाद भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करते रहे और कई बार जेल गए। देश को अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद वह चंद्रशेखर के माता-पिता का हालचाल पूछने उनके गांव पहुंचे। वहां उन्हें पता चला कि चंद्रशेखर की शहादत के कुछ साल बाद उनके पिता का भी देहांत हो गया था।”

– ”आजाद के भाई की मृत्यु भी उनसे पहले ही हो चुकी थी। पिता के देहांत के बाद चंद्रशेखर की मां बेहद गरीबी में जीवन जी रहीं थी। गांव के लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया और डकैत की मां कहकर बुलाने लगे। गरीबी के बावजूद उन्होंने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया।”

– ”वो जंगल से लकड़ियां काटकर लाती थीं और उनको बेचकर ज्वार-बाजरा खरीदती थी। भूख लगने पर ज्वार-बाजरा का घोल बनाकर पीती थीं। उनकी यह स्थिति देश को आजादी मिलने के 2 साल बाद (1949) तक जारी रही।”

– ”आजाद की मां का ये हाल देख सदाशिव उन्हें अपने साथ झांसी लेकर आ गए। मार्च 1951 में उनका निधन हो गया। सदाशिव ने खुद झांसी के बड़ागांव गेट के पास शमशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया था। घाट पर आज भी आजाद की मां जगरानी देवी की स्मारक बनी है।”

 

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