कोमा में जा चुके या मौत की कगार पर पहुंच चुके लोगों को वसीयत (Living Will) के आधार पर निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) का हक होगा। सुप्रीम कोर्ट की कॉन्स्टीट्यूशन बेंच ने शुक्रवार को यह अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि इंसान को सम्मान से जीने का हक है तो सम्मान से मरने का भी हक है। कोर्ट ने इस मामले में 12 अक्टूबर को फैसला सुरक्षित रखा था। आखिरी सुनवाई में केंद्र ने इच्छामृत्यु का हक देने का विरोध करते हुए इसका दुरुपयोग होने की आशंका जताई थी।
परिवार और डॉक्टरों की टीम की इजाजत होगी जरूरी
– सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि लिविंग विल पर भी मरीज के परिवार की इजाजत जरूरी होगी। साथ ही एक्सपर्ट डॉक्टरों की टीम भी इजाजत देगी, जो यह तय करेगी कि मरीज का अब ठीक हो पाना नामुमकिन है।
पिटीशन में कहा था- सम्मान से मरने का भी हक हो
– एनजीओ कॉमन कॉज ने लिविंग विल का हक देने की मांग को लेकर 2005 में पिटीशन लगाई थी। इसमें कहा गया था कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को लिविंग विल बनाने का हक होना चाहिए।
– पिटीशनर का कहना था कि इंसान को सम्मान से जीने का हक है तो उसे सम्माने से मरने का भी हक होना चाहिए।
लिविंग विल क्या है?
– यह एक लिखित दस्तावेज होता है, जिसमें संबंधित शख्स यह बता सकेगा कि जब वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाए, जहां उसके ठीक होने की उम्मीद न हो, तब उसे जबरन लाइफ सपॉर्ट सिस्टम पर न रखा जाए।
इच्छामृत्यु क्या है?
– किसी गंभीर या लाइलाज बीमारी से पीड़ित शख्स को दर्द से निजात देने के लिए डॉक्टर की मदद से उसकी जिंदगी का अंत करना है। यह दो तरह की होती है। निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) और सक्रिय इच्छामृत्यु (Active Euthanasia)।
निष्क्रिय इच्छामृत्यु क्या है?
– अगर कोई लंबे समय से कोमा में है तो उसके परिवार वालों की इजाजत पर उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटाना निष्क्रिय इच्छामृत्यु है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे इजाजत दी है।
सक्रिय इच्छामृत्यु क्या है?
– इसमें मरीज को जहर या पेनकिलर के इन्जेक्शन का ओवरडोज देकर मौत दी जाती है। इसे भारत समेत ज्यादातर देशों में अपराध माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे मंजूरी नहीं दी है।
कॉन्स्टीट्यूशन बेंच में कैसे पहुंचा मामला?
– 2014 में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर अरुणा शानबाग मामले में 2011 में दिए गए फैसले को असंगत बताया था और यह मामला पांच जजों की बेंच के पास भेज दिया था। तब से यह पेंडिंग था।
अरुणा शानबाग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला दिया था?
– सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग मामले में दायर जर्नलिस्ट पिंकी वीरानी की पिटीशन पर 7 मार्च 2011 को निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाजत दे दी थी। हालांकि, अरुणा शानबाग के लिए इच्छामृत्यु की मांग खारिज कर दी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने वीरानी की पिटीशन क्यों खारिज की थी?
– सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि कुछ खास परिस्थितियों में संबंधित हाईकोर्ट के निर्देश पर निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाजत दी जा सकती है, लेकिन इसके लिए तीन डॉक्टरों और मरीज के परिवार वालों की इजाजत जरूरी है। पिंकी वीरानी शानबाग की परिजन नहीं थीं, इसलिए उनकी पिटीशन खारिज कर दी गई।
अरुणा शानबाग का क्या मामला है?
– अरुणा शानबाग के साथ 27 नवंबर 1973 में मुंबई के केईएम हॉस्पिटल में एक वार्ड ब्वॉय ने कथिततौर पर रेप किया था। हालांकि, उस पर यह आरोप साबित नहीं हुआ था।
– उसने अरुणा के गले में जंजीर कस दी थी, जिससे वे कोमा में चली गई थीं। वे 42 साल तक कोमा में रहीं। उनकी 18 मई 2015 को मौत हो गई थी।
– इससे पहले जर्नलिस्ट पिंकी वीरानी ने शानबाग की हालत को देखते हुए 2011 में उनके लिए इच्छामृत्यु देने की मांग की थी और सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन दायर की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने शानबाग मामले में क्या फैसला सुनाया था?
– सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2011 को पिंकी वीरानी की पिटीशन खारिज कर दी थी। हालांकि, कोर्ट ने कहा था कि परिवार की इजाजत पर किसी को इच्छामृत्यु दी जा सकती है।
केंद्र सरकार किस बात के खिलाफ थी?
– केंद्र सरकार लिविंग विल के खिलाफ थी। वह अरुणा शानबाग मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर सक्रिय इच्छामृत्यु पर सहमति देने को तैयार थी।
– उसका कहना था कि इसके लिए कुछ शर्तों के साथ ड्राफ्ट तैयार है। इसमें जिला और राज्य के मेडिकल बोर्ड सक्रिय इच्छामृत्यु पर फैसला करेंगे। लेकिन मरीज कहे कि वह मेडिकल सपोर्ट नहीं चाहता यह उसे मंजूर नहीं है।
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