ये Article जिस मुद्दे के बारे में है, हो सकता है कि आप उसके बारे में कुछ पढ़ना, बोलना या फिर सोचना भी ज़रुरी न समझें. हजारों साल पुरानी इस दुनिया में देश-धर्म-जाति-रंग को लेकर संघर्ष चलता आ रहा है, लेकिन एक संघर्ष ऐसा भी है, जो इनसे पहले से जारी है. ये एक ऐसा संघर्ष है, जो इंसान के जन्म से शुरू होता है और उसके मरने तक चलता रहता है. ये संघर्ष है ‘लिंग की पहचान’ यानि ‘Gender Identity’.
जब Gender की बात की जाती है तो लोगों के दिमाग में सिर्फ़ दो ही चीजें आती हैं, पुलिंग और स्त्रीलिंग मतलब पुरुष और स्त्री. असल समस्या तो यही है कि लोग सिर्फ़ इन्हीं दो के बारे में सोचते हैं. इसी सोच की वजह से समाज का एक बड़ा तबका हमसे दूर हो चुका है. ये तबका है ‘किन्नर’ या जिन्हें हम और आप हिजड़ा, छक्का, सिक्सर, ट्रांसजेंडर और न जानें कितने ही नामों से बुलाते हैं. सिर्फ़ लिंग का निर्धारण न होने से इन लोगों को एक अलग समाज दे दिया गया है. इन्हें सम्मान की नहीं, बल्कि घृणा की नजरों से देखा जाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने भले ही तीन साल पहले किन्नरों को तीसरे लिंग यानि Third Gender का दर्जा देकर उन्हें एक पहचान दे दी, लेकिन लोग अभी भी उन्हें देखना पसंद नहीं करते. ऐसे में फ़िल्मों की दुनिया में भी इन्हें दरकिनार कर देना, क्या सही है? जब बॉलीवुड में आदमी के रोल के लिए आदमी को, औरत के रोल के लिए औरत को मौके दिए जा सकते हैं, तो फिर किन्नर के रोल के लिए किन्नरों को मौके क्यों नहीं दिए जा सकते?
किन्नरों की वजह से याद की जाती हैं कई हिंदी फ़िल्में
वैसे तो फ़िल्मों में किन्नरों का रोल बहुत कम ही देखने को मिलता है, लेकिन कुछ फ़िल्में ऐसी है, जो सिर्फ़ इन पर फ़िल्माए गए किरदारों की वजह से यादगार बन गयी हैं.
1. सड़क (1991)
आपको संजय दत्त की मूवी ‘सड़क’ तो याद ही होगी. इसे सफ़ल और एक यादगार फ़िल्म बनाने में अगर सबसे बड़ा योगदान किसी का है तो वो है, सदाशिव अमरापुरकर. सदाशिव ने इस मूवी में ‘महारानी’ नाम के एक किन्नर का रोल निभाया था. इस किरदार ने दर्शकों के दिमाग़ पर एक अमिट छाप छोड़ दी और इस फ़िल्म को जीवन्त बना दिया. सदाशिव को इस फ़िल्म के लिए बेस्ट विलेन का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला.
2. तमन्ना (1997)
साल 1997 में आई फ़िल्म ‘तमन्ना’ एक ऐसी मूवी थी, जिसमें किसी किन्नर की ज़िंदगी को सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. इसमें किन्नर ‘टिक्कु’ की भूमिका परेश रावल ने निभायी थी और इस किरदार को उन्होंने बखूबी पर्दे पर उतारा. सामाजिक मुद्दे पर बनने वाली इस मूवी को उस साल ‘नेशनल अवार्ड’ भी मिला था.
3. शबनम मौसी (2005)
यह फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है. शबनम “मौसी” बानो 1998 से 2003 तक मध्य प्रदेश राज्य विधान सभा की निर्वाचित सदस्य थी. वह सार्वजनिक पद के लिए चुनी जाने वाली पहली ट्रांसजेंडर भारतीय है. इस फ़िल्म में शबनम मौसी का किरदार आशुतोष राणा ने निभाया है.
4. दायरा (1997)
समलैंगिक नर्तक और एक औरत के बीच की प्रेम कहानी पर बनी यह फ़िल्म प्यार करने के पारंपरिक विचारों को चुनौती देती है. इस फ़िल्म की जान निर्मल पांडेय का अभिनय है, जो कि एक किन्नर के किरदार में है. इस मूवी को नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है और टाइम मैगज़ीन की 10 सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म्स में भी ये जगह पा चुकी है, लेकिन ये भारत में कभी रिलीज़ नहीं हुई.
5. दरमियां (1997)
इस फ़िल्म में एक अभिनेत्री की कहानी है, जिसे पता चलता है कि उसका बेटा एक किन्नर है. इसमें किन्नर का किरदार आरिफ़ ज़कारिया ने निभाया है. आरिफ़ को नेशनल अवॉर्ड के लिए नामित भी किया गया था.
6. संघर्ष (1999)
अगर आपने 1999 में आई ‘संघर्ष’ मूवी देखी है तो आप इसके विलेन लज्जा शंकर पांडेय यानि आशुतोष राणा को कभी नहीं भूल सकते. हिंदी फ़िल्मों के इतिहास में आशुतोष राणा का विलेन वाला ये किरदार आज भी डरा देता है. लज्जा शंकर पांडेय और भी डरावना लगने लगता है जब वो किन्नर के भेष में आता है. इस किरदार ने आशुतोष राणा को बेस्ट विलेन का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी दिलाया.
और भी कई मूवीज़ हैं, जैसे- मर्डर-2 (2011), रज्जो (2005), वेलकम टू सज्जनपुर (2008), बुलेट राजा (2013), जिन्हें किन्नरों पर फ़िल्माए गए किरदारों की वजह से जाना जाता है. इन मूवीज़ ने किन्नरों की ज़िंदगी को दिखाकर शोहरत तो खूब कमाई, लेकिन क्या किन्नरों को कभी इन फ़िल्मों में मौके दिए गए? इस तरह की मूवीज़ में किन्नर का किरदार निभाने वाला कलाकार कोई किन्नर नहीं होता, बल्कि फ़िल्मी जगत के ही चर्चित सितारे होते हैं. क्या इन सितारों की जगह किसी किन्नर को मौका नहीं दिया जा सकता था?
पुरुष-महिला, पुरुष-किन्नर, महिला-किन्नर. जब बात दो लोगों की होती है तो उनके बीच समानता-असमानता का होना कोई बड़ी बात नहीं है. पुरुष प्रधान इस समाज ने किन्नरों और औरतों दोनों के साथ भेदभाव किया है. औरतों को उनका हक़ पाने के लिए काफ़ी लम्बा संघर्ष करना पड़ा है और उनका संघर्ष अभी भी जारी है. वो महिलाएं जो ये अच्छे से समझती हैं कि हक़ न मिल पाने से ज़िंदगी में कितनी तकलीफें उठानी पड़ती हैं, किन्नरों के साथ हो रहे भेदभाव को नहीं समझ पातीं. वो भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती हैं, जैसा पुरुष उनके साथ करते हैं.
लोग कहते है कि किन्नर उन्हें परेशान करते है और बस, ट्रेन में बेवजह पैसे मांगते है. लेकिन उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर किसने किया है? ज़वाब ढूंढने की कोशिश करेंगे तो शायद आपका ही नाम मिले या हो सकता है, आपके किसी जानने वाले का. दरअसल, किन्नर हमें या आपको परेशान नहीं करते हैं, बल्कि हमने उनका अधिकार न देकर उन्हें परेशान किया है. अगर उन्हें मौका मिले तो वो देश की उन्नति में एक बड़ा योगदान कर सकेंगे. अगर ये मौके इन्हें बॉलीवुड से मिलना शुरु हो तो ‘लिंगभेद’ या ‘Gender Discrimination’ जैसे शब्द जल्द ही दुनिया से ग़ायब हो जाएंगे.
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